अरहर - किस्मे

अरहर - किस्मे

अरहर की फसल उत्पादन तकनीक




    अरहर खरीफ की मुख्य फसल है। अरहर को तुअर भी कहा जाता है। दलहनी फसलों में अरहर का प्रमुख स्थान है। भोजन में सब्जी तथा अन्य व्यंजनो में अरहर का प्रयोग किया जाता है। अरहर वायुमण्डलीय नाइट्रोजन को भूमि में संचित करती है। अरहर में लगभग 22ः प्रोटीन और 57ः कार्बोहाइड्रेट पाया जाता है। यह कम सिंचाई और बरानी क्षेत्रों के लिए उत्तम फसल मानी जाती है। दलहनी फसल होने के कारण यह मिट्टी की उर्वरा शक्ति को बढ़ाती है। अरहर को मिश्रित फसल के रूप में अन्य किसी फसल के साथ उगाकर अतिरिक्त लाभ भी लिया जा सकता है। धार जिले में 5.73 हजार हेक्टेयर में अरहर की खेती होती है, जिसका कुल उत्पादन 6.647 हजार टन होता है तथा उत्पादकता 1160 किग्रा. प्रति हेक्टेयर है, जो उन्नतशील प्रजातियों की तुलना में आधे से भी कम उत्पादन है। किसान भाई उन्नत तकनीक अपनाकर 20 से 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक उत्पादन ले सकते है।

1. उपयुक्त जलवायु: अरहर आर्द्र और शुष्क दोनों ही प्रकार के गर्म क्षेत्रों में उगाई जा सकती है, इसे 75 से 100 सेंटीमीटर वर्षा वाले क्षेत्रों में सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है।
2. भूमि का चयन: अरहर को अधिकांश प्रकार की मिट्टी में उगाया जा सकता है। अरहर की फसल के लिए बलुई-दोमट या दोमट मिट्टी जिसका पी एच मान 6.5 से 7.5 के बीच हो तथा भूमि जल का तल गहराई पर हो, सर्वोत्तम रहती है। इसकी बुवाई के समय 30℃  तापमान आवश्यक है।
3.  खेत की तैयारी: मिट्टी पलटने वाले हल से एक गहरी जुताई के बाद 2 जुताई देशी हल या कल्टीवेटर से करना उचित रहता है। 

उन्नत किस्में:
1 शीघ्र पकने वाली किस्में पूसा- 855, पूसा- 33, पूसा अगेती, पी ए यू- 881, (ए एल- 1507) पंत, अरहर- 291, जाग्रति ( आई सी पी एल- 151) और आई सी पी एल- 84031 (दुर्गा) पूसा-16, आई सी पी एल- 88039 आदि प्रमुख है।
2 मध्यम समय में पकने वाली किस्में टाइप- 21, जवाहर अरहर- 4 और आई सी पी एल- 87119 (आशा) इत्यादि प्रमुख है।
3 देर से पकने वाली किस्में बहार, एम ए एल- 13, पूसा- 9 और शरद (डी ए- 11) आदि है।
4 हाईब्रिड किस्में 
पी पी एच- 4, आई सी पी एच- 8, जी टी एच- 1, आई सी पी एच- 2671 और  आई सी पी एच- 2740 आदि।
5 बांझपन रोग प्रतिरोधी किस्में बी आर जी- 2, टी जे टी- 501, बी डी एन- 711, बी डी एन- 708, एन डी ए- 2, बी एस एम आर -853, पूसा- 992 और बी एस एम आर- 736 मुख्य है।
6 उकटा प्रतिरोधी किस्में
वी एल अरहर- 1, बी डी एन- 2, बी डी एन- 708, विपुला, जे के एम- 189, जी टी- 101, पूसा- 991, आजाद (के- 91-25), बी एस एम आर- 736 और एम ए- 6 आदि प्रमुख है।

बुआई का समय: 
शीघ्र पकने वाली किस्मों की बुआई जून के प्रथम पखवाड़े में पलेवा करके करना चाहिए और मध्यम तथा देर से पकने वाली किस्मों की बुआई जून से जुलाई के प्रथम पखवाड़े में करना चाहिए।

 बीज उपचार:
 सर्वप्रथम एक किग्रा. बीज को 2 ग्राम थीरम तथा एक ग्राम कार्बेन्डाजिम के मिश्रण अथवा 4 ग्राम ट्राइकोडर्मा $ 1 ग्राम कारबाक्सिन या कार्बेन्डाजिम से उपचारित करें। बोने से पहले हर बीज को अरहर के विशिष्ट राइजोबियम कल्चर से उपचारित करें। एक पैकेट राइजोबियम कल्चर को साफ पानी में घोल बनाकर 10 किग्रा. बीज के उपर छिड़ककर हल्के हाथ से मिलायें जिससे बीज के उपर एक हल्की परत बन जाये। इस बीज की बुवाई तुरंत करें। तेज धूप से कल्चर के जीवाणु के मरने की आशंका रहती है। ऐसे खेतों में जहां अरहर पहली बार काफी समय बाद बोई जा रही हो, कल्चर का प्रयोग अवश्य करें।

बीज की मात्रा बुआई की दूरी: 
जल्दी पकने वाली किस्मों का 20 से 25 किलोग्राम और मध्यम पकने वाली किस्मों का 15 से 20 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टर बोना उचित है।

किस्में पंक्ति से पंक्ति की दुरी पौधे से पौधे की दुरी
1.शीघ्र पकने वाली किस्मों हेतु 45 से 60 सेमी. 15 से 20 सेमी.
1. 2.मध्यम एवं देर से पकने वाली किस्मों हेतु 60 से 75 सेमी. 20 से 30 सेमी.

टपक सिंचाई पद्यति से बुआई करने पर पक्ंित से पक्ंित की दुरी को 90 सेमी. से 120 सेमी. कर सकते है। जिससे बीज की मात्रा कम लगती है तथा उत्पादन भी सामान्य से 25 से 30 प्रतिशत अधिक मिलता है।

खाद एवं उर्वरक: 
मिट्टी परीक्षण के आधार पर समस्त उर्वरक अन्तिम जुताई के समय हल के पीछे या फर्टी कम सीड ड्रील द्वारा लाईन में बीज की सतह से 5 सेंटीमीटर गहराई में देना सर्वोत्तम रहता है। बुआई के समय 20 से 25 किलोग्राम नत्रजन, 40 से 50 किलोग्राम फास्फोरस, 20 से 25 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टर कतारों में बीज के नीचे दिया जाना चाहिए। अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए कम्पोस्ट या वर्मी कम्पोस्ट का उपयोग करने से उर्वरक उपयोग दक्षता में बढ़ोतरी होती है।


सूक्ष्म पोषक तत्व प्रबंधन: 
अरहर की फसल में गंधक 30 किग्रा/हे., जिंक 3 से 5 किग्रा/हे. बुवाई के समय, लोहे की पूर्ति के लिए 0.5: फेसर सल्फेट के घोल का 60, 90 और 120 दिन की फसल पर प्रयोग करें।

सिंचाई और जल निकासी: 
बुवाई से 30 दिन बाद शाखाऐ निकलते समय, पुष्पावस्था बुवाई से 70 दिन बाद तथा फली बनते समय बुवाई से 110 दिन बाद नमी का होना आवश्यक है। वर्षा न होने की दशा में इन अवस्थाओं पर सिंचाई करें। अधिक अरहर उत्पादन के लिए खेत में उचित जल निकासी का होना आवश्यक है, इसलिए निचले और अधो जल निकासी की समस्या वाले क्षेत्रों में मेड़ों पर बुआई करना उचित रहता है मेड़ों पर बुवाई करने से अधिक जल भराव की स्थिति में भी अरहर की जड़ों के लिए पर्याप्त वायु संचार होता रहता है।

खरपतवार रोकथाम: 
खरपतवारो का प्रबंधन ट्रेक्टर/बैल चालित डोरा चलाकर आसानी से किया जाता है। श्रमिको की उपलब्धता न होने के कारण रासायनिक विधि से खरपतवार प्रबंधन किया जाना आर्थिक दृष्टि से लाभकारी रहता है।
शाकनासी का नाम सक्रिय तत्व मात्रा (ग्राम या मिली./प्रतिहे.) व्यापारिक मात्रा(ग्राम या मिली./प्रति हे.) प्रयोग समय बुवाई/रोपाई के दिन बाद टिप्पणी

पेन्डीमिथालिन 30: 1000-1250 3330-4160 बुवाई से पहले या बुवाई के 3 दिन के अंदर सभी प्रकार के घास एवं कुछ चैड़ी पत्ती वाले खरपतवारों का प्रभावी नियंत्रण।
पेन्डीमिथालिन 38.7ः 796 1750 बुवाई के 2-3 दिने अंदर वार्षिक घास कुल एवं कुछ चैड़ी पत्ती वाले खरपतवारों का प्रभावी नियंत्रण। शुष्क भूमि में भी प्रयोग किया जा सकता है।
आक्सीफ्लोरफेन23.5ः 150-250 600-1000 0-3 सभी प्रकार वार्षिक घास कुल कुछ चैड़ी पत्ती वाले खरपतवारों का प्रभावी नियंत्रण।
क्यूजालोफाॅप ईथाइल 5ः ई.सी. 45-50 800-1000 15-20 घास कुल के खरपतवारों का प्रभावी नियंत्रण।
ईमीजेथापायर 10ः  एस.एल. 100 1000 15-20 सॅकड़ी एवं चैड़ी पत्ती वाले खरपतवारों का प्रभावी नियंत्रण।
ईमीजेथापायर 35ः $इमेजामोक्स 35ः  डब्ल्यूजी 70 1000 15-20 सॅकड़ी एवं चैड़ी पत्ती वाले खरपतवारों का प्रभावी नियंत्रण।


कीट पहचान एवं नियंत्रण:
कीट पहचान एवं हानि प्रकृति
फलीमक्खी या फलीछेदक यह छोटी, चमकदार काले रंग की घरेलू मक्खी की तरह परन्तु आकार में छोटी मक्खी होती है। इसकी मादा फलियों में बन रहे दानों के पास फलियों में अपने अण्डरोपक की सहायता से अण्डे देती है जिससे निकलने वाली गिडारे फली के अंदर बन रहे दाने को खाकर नुकसान पहुचाती है।
पत्ती लपेटक कीट इस कीट की सूंडी हल्के पीले रंग की होती है तथा प्रौढ़ कीट (पतंगा) छोटा एवं गहरे भूरे रंग का होता है। इस कीट की संूडी चोटी की पत्तियों को लपेटकर जाला बुनकर उसी में छिपकर पत्तियों को खाती है। अगेती फसल में यह फूलों एवं फलियों को भी नुकसान पहुॅचाती है।
पिच्छकी शलभ (प्लूम माथ) प्रौढ़ पतंगा आकार में छोटा एवं हल्का पाण्डु वर्गीय होता है, जिसके अगले पंख पिच्छकी होते हैं तथा प्रत्येक पंखों पर दो दो गहरे धब्बे पाये जाते है। पिछले जोड़ी पंखों पर बीच में काॅटे जैसे शल्क पाये जाते है। कीट की सूंडीयोॅ फलियों को पहले उपर की सतह से खुरचकर खाती है फिर बाद में छेदकर अंदर घुस जाती है तथा दानों में छेद बनाकर खाती है।
अरहर का फलीबेधक(नानागुना बे्रबियसकुला) न्वजात संूडी पीले सफेद एवं गहरे भूरे रंग के सिर वाली होती है इसकी 6 अवस्थाएं पायी जाती हैं तथा इन अवस्थाओं में इनका रंग परिवर्तनीय होता है। पूर्ण विकसित सूण्डी 14 से 17 मिमी. लम्बी हल्के पीले, हल्के भूरे अथवा हल्के सफेद रंग तथा लाल भूरे सिर एवं पाश्र्व में पट्यिायुक्त होती है। ये फलियां को जाले में बांधकर छेद करती है और दानों को खाती है। 
नीली तितली (लैम्पीडस प्रजातिया) पूर्ण विकसीत सूण्डी पीली हरी, लाल तथा हल्के हरे रंग की होती है तथा इनके शरीर की निचली सतह छोटे छोटे बालों से ढकी होती है। प्रौढ़ तितली आसमानी नीले रंग की होती है। इसकी सूंडियां फलियों को छेदकर उनके दानों को नुकसान पहुचाती है।

नियंत्रण: 
गर्मियों में खेत की गहरी जुताई करना चाहिए। बुवाई मेड़ पर मध्य जून से जुलाई के प्रथम सप्ताह में करना चाहिए। पौधो के बीच उचित दूरी (75ग्25सेमी.) रखना चाहिए। अरहर की फली मक्खी  से प्रकोपित 5 प्रतिशत फली मिलने पर या माहू या फली चूसक कीटों का प्रकोेप होने पर डाईमेथेएट 30 ई.सी. 1 ली. या इमिडाक्लोप्रिड 17.8 एस.एल. 200 मिली. अथवा एसिटामिप्रिड 20 डब्ल्यू.पी. 150 ग्राम प्रति हे. की दर से छिड़काव करना चाहिए।
अन्य फलीबेधकों से 5 प्रतिशत प्रकोपित फली पाये जाने पर बी.टी. 5 प्रतिशत डब्ल्यू.पी. इन्डाक्साकार्ब 14.5 एससी 400 मिली., क्यूनालफाॅस 25 ई.सी., 1.5 ली. फेनवेलरेट 20 ई.यी. 750 मिली., साइपरमेथ्रिन 10 ई.सी. 750 मिली. या डेकामेथ्रिन 2.8 ई.सी. 450 मिली. का प्रति हे. अथवा क्लोरेन्ट्रनिलिप्रोल 18.5: एस.सी. 150 मिली./हे. अथवा इथियान 50: ई.सी. 1.1.5 ली./हे. अथवा फ्लूबेण्डा अमाइड 39.35ः एस.सी. 100 मिली./हे. 500-700 ली. पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए।

 रोग, पहचान एवं रोकथाम:
अरहर का उकठा रोग - पहचान: यह फ्यूजेरियम नामक कवक से फैलता है। यह पौधों में पानी व पानी व खाद्य पदार्थ के संचार को रोक देता है, जिससे पत्तिया पीली पड़कर सूख जाती हैं और पौधा सूख जाता है। इसमें जड़ें सड़कर गहरे रंग की हो जाती हैं तथा छाल हटाने पर जड़ से लेकरतने की उंचाई तक काले रंग की धारियां पाई जाती है।

उपचार:
जिस खेत में उकठा रोग का प्रकोप अधिक हो, उस खेत में 3-4 साल तक अरहर की फसल नही लेना चाहिए। ज्वार के साथ अरहर की सहफसल लेने किसी हद तक उकठा रोग का प्रकोप कम हो जाता है। थीरम एवं कार्बेन्डाजिम को 2ः1 के अनुपात में मिलाकर 3 ग्राम प्रति किग्रा.बीज उपचारित करना चाहिए। ट्राईकोडरमा 4 ग्राम तथा 1 ग्राम कारबाक्सीन या कार्बेन्डाजिम/किग्रा. द्वारा बीज उपचारित करके उकठा रोग की रोकथाम की जा सकती है।
2.5 किग्रा. ट्राईकोडर्मा को 60-75 किग्रा0 गोबर की खाद में मिलाकर एक सप्ताह बाद प्रति हे0 की दर से खेत की तैयारी के समय भूमि में मिला दिया जाय।
अरहर का बन्झा रोग- पहचान: ग्रसित पौधों में पत्तियां अधिक लगती हैं, फूल नहीं आते जिससे दाना नहीं बनता है। पत्तियां छोटी तथा हल्के रंग की हो जाती हैं। यह रोग माइट द्वारा फैलता है।
उपचार: इसका अभी को प्रभावकारी रासायनिक उपचार नहीं निकला हैं। जिस खेत में अरहर बोना हो उसके आसपास अरहर के पुराने एवं स्वयं उगे हुये पौधों को नष्ट कर देना चाहिए। रोग प्रतिरोधी प्रजातियां का चुनाव करना चाहिए।
सूत्रकृमि: सूत्रकृमि जनित बीमारी की रोकथाम हेतु गर्मी की गहरी जुताई आवश्यक है। 50 किग्रा. निमौली प्रति हे. की दर से प्रयोग करेें।


उपयुक्त फसल चक्र:
1. अरहर - मक्का/तिल/सोयाबीन/उडद/मूंग आदि 2. अरहर - गेहूं 3. अरहर - गेहूं - मूंग 
4. मूंग (ग्रीष्म) - अरहर - गेहूं 5. अरहर (अति अगेती) - आलू - उड़द
16. कटाई एवं गहाई:
जब पौधों की पत्तियाँ पिली लगे और फलियां सूखने पर भूरे रंग की हो जाएं तब फसल को काट लेना चाहिए। खेत मे 8 से 10 दिन धूप में सूखाकर ट्रैक्टर मशीन या श्रमिको द्वारा फलियों से दानों को अलग कर लेना चाहिए।

पैदावार:
उपरोक्त उन्नत उत्पादन तकनीकी अपनाकर अरहर की खेती करने से 15 से 20 क्ंिवटल प्रति हेक्टेयर असिंचित अवस्था में और 25 से 30 क्ंिवटल प्रति हेक्टेयर पैदावार सिंचित अवस्था में प्राप्त कर सकते है। भण्डारण हेतु नमी का प्रतिशत 8 से 12 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए।