चने की उत्पादन तकनीक
चना, भारत की दलहनी
फसलों में सबसे महत्वपूर्ण फसल है। संपूर्ण विश्व के कुल चना उत्पादन में 70 प्रतिशत हिस्सा भारत का है। देश में चना उत्पादन में
मध्यप्रदेश प्रथम स्थान पर है। भारत में उगाई जाने वाली दलहनी फसलों को कुल
पैदावार का आधा हिस्सा चने से ही प्राप्त होता है। चने की हरी पत्तियां सब्जी
बनाने, हरे चने सब्जी के रुप में,
सूखा दाना दाल के रुप में तथा बेसन के रुप में
इसका प्रयोग नमकीन और मिठाईयां बनाने में प्रयुक्त होता है। चना में 17 से 21 प्रतिशत प्रोटीन,
62 प्रतिशत कार्बोहाईड्रेट, वसा, रेशा, कैल्शियम, लोहा, विटामिन बी तथा हरे चने में बिटामिन सी प्रचूर मात्रा में
पायी जाती है। इसकी पत्तियों में मौलिक व आॅक्जेलिक अम्ल होने के कारण इनमें हल्की
सी खटास होती है, जो पेट की बीमारियों तथा
रक्त शुद्धिकरण में सहायक होते हैं।
भूमि की तैयारी:
पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से 6 इंच गहरी व दो जुताइयां देशी हल अथवा कल्टीवेटर से करके
पाटा लगाकर खेत को तैयार कर लेना चाहिए।
संस्तुत प्रजातियाँ -
चने
की प्रजातियों का विवरण:
स.क्रं. प्रजाति पकने
की अवधि उपज (क्वि./है.) विशेषतायें
1 जवाहर चना 130 110.115 20.22 बडा दाना, उकठा अवरोधी, चने की इल्ली के प्रति सहनशील
2 जवाहर चना 16 110.115 20.22 उकठा अवरोधी, दाना मध्यम बडा आकर्षक रंग का, गहरे हरे रंग की पत्तियां एवं अधिक शाखा विकास
3 जवाहर चना 315 115.120 15.18 उकठा अवरोधी
4 उज्जैन 21 105.110 16.18 वर्षा आधारित क्षेत्रों
के लिए उपयुक्त
5 जवाहर गुलाबी चना 1 105.110 15.18 भूनने के लिए उपयुक्त
6 जे.जी. 74 105.110 18.20 जल्दी पकने वाली किस्म,
दाना पीले-भूरे रंग का खुरदरे व मध्यम आकार का,
देरी से बुबाई के लिए उपयुक्त, उकठा रोग प्रतिरोधक किस्म
7 काक 2 110.120 15.18 बडा दाना, उकठा अवरोधी,
8 विराट 115.120 20.22 दाना मध्यम, उकठा अवरोधी
9 सुभ्रा 110.115 20.22 बडा दाना, उकठा अवरोधी
10 कृपा 115.120 20.22 बडा दाना, उकठा अवरोधी
11 आर.व्ही.जी 202
(जे.एस.सी.55) 102.105 20.21 उकठा, शुष्क जड़ गलन एवं काॅलर रोट के प्रति मध्यम अवरोधी
12 आर.व्ही.जी 203 100.105 19.20 उकठा एवं शुष्क जड़ गलन
रोग गे प्रति मध्यम अवरोधी
13 आर.व्ही.जी 204 112.115 19.20 उकठा रोग के प्रति
सहिष्णु, मशीन से कटाई के लिए
उपयुक्त
14 आर.व्ही.जी 205 120.125 20.25 दाना हरा, उकठा अवरोधी
नोट-उपरोक्त तालिका में
औसत उपज दर्शायी गई है लेकिन उपरोक्त किस्मों की समय से बुबाई कीट रोग तथा खरपतवार
प्रबंधन कर उपज को 30 से 35 प्रतिशत तक उत्पादन अधिक लिया जा सकता है।
बीज दर:
छोटे दाने का 75-80 किग्रा. प्रति हेक्टर तथा बड़े दाने की प्रजाति का 90-100 किग्रा./हेक्टर।
बीज शोधन:
बीज जनित रोग से
बचाव के लिए थीरम 2.5 ग्राम या या 4 ग्राम ट्राइकोडरमा अथवा थीरम 2.0 ग्राम $ 1 ग्राम का
कार्बेन्डाजिम को 3 ग्राम प्रति किलोग्राम
बीज की दर से बीज को बोने से पूर्व शोधित करना चाहिए। बीजशोधन कल्चर द्वारा
उपचारित करने के पूर्व करना चाहिए।
अमोनियम मालेब्लेडिनम- 1 ग्राम प्रति किग्रा बीज में मिलाकर बुवाई करने से उपज में 10 से 15 प्रतिशत तक
वृद्धि होती है।
बीजोपचार:
अलग-अलग दलहनी फसलों का
अलग-अलग राइजोबियम कल्चर होता है चने हेतु मीजोराइजोबियम साइसेरी कल्चर का प्रयोग
होता है। एक पैकेट 200 ग्राम कल्चर 10 किग्रा. बीज उपचार के लिए पर्याप्त होता है। बाल्टी में 10 किग्रा. बीज डालकर अच्छी प्रकार मिला दिया जाता है ताकि
सभी बीजों पर कल्चर लग जायें। इस प्रकार राइजोबियम एवं पी.एस.बी कल्चर से उपचारित
बीजों को कुछ देर छाया में सुखाकर बुवाई करना चाहिए।
बुवाई:
असिंचित दशा में चने की
बुवाई अक्टूबर के द्वितीय अथवा तृतीय सप्ताह तक आवश्यक करनी चाहिए। सिंचित दशा में
बुवाई नवम्बर के द्वितीय सप्ताह तक तथा पछैती बुआई दिसम्बर के प्रथम सप्ताह तक की
जा सकती है। बुवाई हल के पीछे या सीड ड्रिल द्वारा लाईन में 6-8 से.मी. की गहराई पर करनी चाहिए। लाइन से लाइऩ की दूरी
असिंचित तथा पछैती दशा में बुवाई में 30 सेमी. तथा सिंचित एवं काबर या मार भूमि में 45 सेमी. रखनी चाहिए।
उर्वरक:
उर्वरकों का प्रयोग मृदा
परीक्षण के आधार पर करना चाहिए परीक्षण न होने की दशा में 20 किग्रा. नत्रजन, 60 किग्रा. फास्फोरस, 20 किग्रा. पोटाश
एवं 20 किग्रा. गन्धक का प्रयोग
प्रति हेक्टेयर की दर से लाईनों में बुवाई के समय करना चाहिए। असिंचित अथवा देर से
बुआई की दशा में 2 प्रतिशत यूरिया के घोल
का फूल आने के समय छिड़काव करें।
सिंचाई:
प्रथम सिंचाई
आवश्यकतानुसार बुआई के 45-60 दिन बाद (फूल
आने के पहले) तथा दूसरी फलियों में दाना बनते समय की जानी चािहए। यदि सर्दियों में
वर्षा हो जाये तो दूसरी सिंचाई की आवश्यकता नहीं होगी। फूल आते समय सिंचाई न करें
अन्यथा लाभ के बजाए हानि हो सकती है।
फसल सुरक्षा:
(क) प्रमुख कीट:
1. कटुआ कीट:
इस कीट की भूरे रंग की
सूड़ियां रात में निकल कर नये पौधों की जमीन की सतह से काट कर गिरा देती है।
2. अर्द्धकुण्डलीकार कीट
(सेमीलूपर)ः
इस कीट की सूड़ियाॅ हरे
रंग की होती है जो लूप बनाकर चलती है। सूड़ियाॅ पत्तियों, कोमल टहानियों, कलियों, फूलों एवं फलियों को खाकर
क्षति पहुँचाती है।
3. फली बेधक कीट:
इस कीट की सूड़ियाँ हरे
अथवा भूरे रंग की होती है। सामान्यतः पीठ पर लम्बी धारी तथा किनारे दोनों तरफ पतली
लम्बी धारियाँ पायी जाती है। नवजात सूड़ियाॅ प्रारम्भ में कोमल पत्तियों को खुरच कर
खाती है तथा बाद में बड़ी होने पर फलियों में छेद बनाकर सिर को अन्दर कर दानों को
खाती रहती है। एक सूड़ी अपने जीवन काल में 30-40 फलियों को प्रभावित कर सकती है। तीव्र प्रकोप की दशा में
फलियाॅ खोखली हो जाती है तथा उत्पादन बुरी तरह से प्रभावित होता है।
आर्थिक क्षति स्तर:
क्र.सं. कीट का नाम फसल
की अवस्था आर्थिक क्षति स्तर
1 कटुआ कीट वानस्पतिक
अवस्था एक सूँडी प्रति मीटर
2 अर्द्धकुण्डलीकार कीट फूल
एवं फलियाँ बनते समय 2 सूँडी प्रति 10 पौधे
3 फलीबेधक कीट फूल एवं
फलियाँ बनते समय 2 छोटी अथवा 1 बड़ी सूड़ी प्रति
10 पौधा अथवा 4-5 नर पतंगें प्रति
गंधपाश लगातार 2-3 दिन तक मिलने पर
नियंत्रण के उपाय:
1. कटुआ कीट के नियंत्रण
हेतु क्लोरपाइरीफास 20 प्रतिशत ई.सी. की 2.5 लीटर मात्रा प्रति हेक्टेयर बुआई से पूर्व मिट्टी में
मिलाना चाहिए।
2. फलीबेधक कीट के नियंत्रण
हेतु एन.पी.वी. (एच) 250 एल. ई. प्रति
हेक्टेयर लगभग 250-300 लीटर पानी में घोलकर
सांयकाल छिड़काव करें।
3. फलीबेधक कीट एवं
अर्द्धकुण्डलीकार कीट के नियंत्रण हेतु निम्नलिखित जैविक/रसायनिक कीटनाशकों में से
किसी एक रसायन का बुरकाव अथवा 500-600 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर छिड़काव करना चाहिए।
1. बेसिलस थूरिन्जिएन्सिस
(बी.टी) की कस्त्रुत्की प्रजाति 1.0 किग्रा/है.
क्षेत्रफल में छिड़काव करना चाहिए।
2. एजाडिरैक्टिन 0.03 प्रतिशत डब्लू.एस.पी. 2.5-3.00 किलोग्राम।
3. एन.पी.वी. आफ हेलिकोवर्पा
आर्मीजेरा 2 प्रतिशत ए.एस. 250-300 मिली.।
खेत की निगरानी करते रहे।
आवश्यकतानुसार ही दूसरा भुरकाव/छिड़काव 15 दिन के अन्तराल पर करे। एक कीटनाशी को दो बार प्रयोग न करे।
रासायनिक कीट नियंत्रण के
लिए इन्डोक्साकार्ब 500 ग्राम प्रति है.
या प्रोफेनोफाॅस. साइपरमेथ्रिन 1.0 ली. प्रति है.
या रेनेक्सीपायर 20 एस.सी. (0.10 ली/है.) की दर से उपयोग करें।
(ख) प्रमुख रोग:
1. जड़ सड़़न: बुआई के 15-20 दिन बाद पौधा सूखने लगता है। पौधे को उखाड़ कर देखने पर तने
पर रूई के समान फफूँदी लिपटी हुए दिखाई देती है। इसे अगेती जड़ सडन कहते हंै। इस
रोग का प्रकोप अक्टूबर से नवम्बर तक होता है। पछेती जड़ सड़न में पोधे का तना काला
होकर सड़ जाता है तथा तोड़ने पर आसानी से टूट जाता है। इस रोग का प्रकोप फरवरी एवं
मार्च में अधिक होता है।
2. उकठा: इस रोग में पौधे
धीरे-धीरे मुरझाकर सूख जाते हैं। पौधे को उखाड़ कर देखने पर उसकी मुख्य जड़ एवं उसकी
शाखायें सही सलामत होती है। छिलका भूरा रंग का हो जाता हैं तथा जड़ को चीर कर देखें
तो उसके अन्दर भूूरे रंग की धारियाँ दिखाई देती हैं। उकठा का प्रकोप पौधे के किसी
भी अवस्था में हो सकता है।
3. एस्कोकाइटा पत्ती धब्बा
रोग: इस रोग में पत्तियों एवं फलियों पर गहरे भूरे रंग के धब्बे दिखाई देते हैं।
अनुकूल परिस्थिति में धब्बे आपस में मिल जाते हैं जिससे पूरी पत्ती झुलस जाती है।
प्रबन्धन के उपाय:
1. शस्य क्रियायें:
अ. गर्मियों में मिट्टी
पलट हल से जुताई करने से मृदा जनित रोगों के नियंत्रण में सहायता मिलती है।
ब. जिस खेत में प्रायः
उकठा लगता हो तो यथासम्भव उस खेत में 3-4 वर्ष तक चने की फसल नहीं लेनी चाहिए।
स. अगेती जड़ सड़़न से बचाव
हेतु नवम्बर के द्वितीय सप्ताह में बुआई करनी चाहिए।
द. उकठा से बचाव हेतु
अवरोधी प्रजाति की बुआई करना चाहिए।
2. बीज उपचार:
बीज जनित रोगों के
नियंत्रण हेतु थीरम 75 प्रतिशत$कार्बेन्डाजिम 50 प्रतिशत (2ः1) 3.0 ग्राम अथवा ट्राइकोडरमा 4.0 ग्राम प्रति किग्राबीज की दर से शोधित कर बुआई करना चाहिए।
3. भूमि उपचार:
भूमि जनित एवं बीज जनित
रोगों के नियंत्रण हेतु बायोपेस्टीसाइड (जैवकवक नाशी) ट्राइकोडरमा विरिडी 1 प्रतिशत डब्लू.पी अथवा ट्राइकोडर्मा हार्जिएनम 2 प्रतिशत डब्लू.पी. की 2.5 किग्रा. प्रति हे. 60-75 किग्रा सड़़ी हुए गोबर की खाद में मिलाकर हल्के पानी का
छींटा देकर 8-10 दिन तक छाया में रखने के
उपरान्त बुआई के पूर्व आखिरी जुताई पर भूमि में मिला देने से चना के बीज/भूमि जनित
रोगों का नियंत्रण हो जाता है।
4. पर्णीय उपचार:
एस्कोकाइटा पत्ती धब्बा
रोग के नियंत्रण हेतु मैकोजेब 75 प्रतिशत
डब्लू.पी. की 2.0 किग्रा. अथवा कापर
आक्सीक्लोराइड 50 प्रतिशत डब्लू.पी. की 3.0 किग्रा. मात्रा प्रति हेक्टेयर लगभग 500-600 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए।
(ग) प्रमुख खरपतवार:
बथुआ, सेन्जी, कृष्णनील,
हिरनखुरी, चटरी-मटरी, अकरा-अकरी,
जंगली गाजर, गजरी, प्याजी, खरतुआ, सत्यानाशी आदि।
नियंत्रण के उपाय:
1. खरपतवारनाशी रसायन द्वारा
खरपतवार नियंत्रण करने हेतु फ्लूक्लोरैलीन 45 प्रतिशत इ्र.सी. की 2.2 ली. मात्रा प्रति हेक्टेयर लगभग 800-1000 लीटर पानी में घोलकर बुआई के तुरन्त पहले मिट्टी में
मिलाना चाहिए अथवा पेण्डीमेथलीन 30 प्रतिशत ई.सी.
की 3.30 लीटर अथवा एलाक्लोर 50 प्रतिशत ई.सी. की 4.0 लीटर मात्रा प्रति हेक्टेयर उपरोक्तानुसार पानी में घोलकर
फ्लैट फैन /नाजिल से बुआई के 2-3 दिन के अन्दर
समान रूप से छिड़काव करें। ट्रोपरामिजाॅन 33.3 प्रतिशत की 25.8 ग्राम सक्रीय तत्व प्रति हेक्टेयर अथवा क्यूज़ालोफोप-इथाइल 5 प्रतिशत ई.सी. की 2.0 लीटर मात्रा प्रति हेक्टेयर 500 लीटर पानी में घोल बनाकर बुआई के 20-22 दिनांे के बाद छिड़काव करने पर सँकरी एवं चैड़ी पत्ती वाले
खरपतवारों को नियंत्रित कर सकते हैं।
2. यदि खरपतवारनाशी रसायन का
प्रयोग न किया गया हो तो खुरपी अथवा डोरा से निराई कर खरपतवारों का नियंत्रण करना
चाहिए।
कटाई तथा भण्डारण:
जब फलियां पक जायें तो कटाई कर मड़ाई कर
लेना चाहिए। चूंकि दालों में ढोरा अधिक लगता है और इसका भण्डारण दालों को भलीभंति
सुखने के बाद करना चाहिए। भण्डारण में कीटों से सुरक्षा हेतु एल्यूमिनियम फास्फाइड
10 ग्राम प्रति मै. टन की दर से प्रयोग करें।