सरसों की उत्पादन तकनीक
सरसों फसल का भारतीय अर्थव्यवस्था में एक विशेष स्थान है। सरसों कृषकों के लिए बहुत लोकप्रिय होती जा रही है। क्योंकि इसमें कम सिंचाई व लागत मे दूसरी फसलों की अपेक्षा अधिक लाभ प्राप्त होता है। इसकी खेती मिश्रित रूप में और दो फसलीय चक्र में आसानी से की जा सकती है। उन्नतशील सस्य विधियाॅ अपनाकर किसान भाई 25 से 30 क्ंिवटल सरसों की पैदावार ले सकते है। प्रदेश में उत्पादकता कम होने के प्रमुख कारक है- उपयुक्त किस्मों का चयन नही करना, असंतुलित उर्वरक प्रयोग एवं पादप रोग व कीटों की पर्याप्त रोकथाम न करना।
इनमें से किसी एक की कमी से फसल की पैदावार में अत्याधिक नुकसान हो जाता है। प्रदेश के कुछ स्थानों पर नमी की सीमित मात्रा एवं खरपतवारों का अधिक प्रकोप भी उपज पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है।
भूमि की तैयारी:
यह फसल समतल और अच्छे जल निकासी वाली बलुई दोमट मिट्टी में अच्छी उपज देती है। जमीन गहरी एवं जल धारण क्षमता अच्छी होनी चाहिए। अच्छी पैदावार के लिए जमीन का पी.एच. मान 7 होना चाहिए। अत्याधिक अम्लीय एवं क्षारीय मिट्टी इसकी खेती हेतु उपयुक्त नहीं है। यद्यपि क्षारीय भूमि में उपयुक्त किस्म लेकर इसकी खेती की जा सकती है। जहाॅ की भूमि लवणीय हो, वहाॅ पर खेत में पानी भरकर बाहर निकाल देना चाहिए, जिससे लवण पानी के साथ घुलकर बाहर चला जाये। अगर पानी के निकास का समुचित प्रबंध न हो तो प्रत्येक वर्ष सरसों लेने से पूर्व ढेंचा का हरी खाद के रूप में उगाना चाहिए। जहाॅ की जमीन क्षारीय है वहाॅ प्रति तीसरे वर्ष जिप्सम 5 टन प्रति हैक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिए। जिप्सम की आवश्यकता मृदा पी.एच. मान के अनुसार भिन्न हो सकती है। जिप्सम को मई-जून में जमीन में मिला देना चाहिए।
सिंचित क्षेत्रों में पहली जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से और उसके बाद दो जुताईयाॅ तवेदार हल से करना चाहिए। सिंचित क्षेत्र में जुताई करने के बाद खेत में पाटा लगाना चाहिए। जिससे खेत में ढेले न बने। गर्मी में गहरी जुताई करने से कीट नष्ट हो जाते है। अगर बोने से पूर्व भूमि में नमी की कमी है तो खेत में पलेवा करना चाहिए। बौने से पूर्व खेत खरपतवार रहित होना चाहिए। बारानी क्षेत्रो में बरसात के बाद हल/कल्टीवेटर से जुताई कर पाटा लगाकर नमी संरक्षित करना चाहिए। अंतिम जुताई के समय 1.5 प्रतिशत क्यूनाॅलफाॅस धूल 25 किग्रा प्रति हैक्टेयर की दर से मिट्टी में मिला दें, ताकि भूमिगत कीटों की रोकथाम की जा सकें।
बुआई का विधि:
बुआई देशी हल अथवा फर्टिसीडड्रिल से 4-5 सेन्टीमीटर गहरे कूंड़ों में 30-45 सेन्टीमीटर की दूरी पर करना चाहिए। बुआई के बाद बीज ढकने के लिए हल्का पाटा लगा देना चाहिए। असिंचित दशा में बुआई का उपयुक्त समय सितम्बर का द्वितीय पखवारा है। विलम्ब से बुआई करने पर माहूँं का प्रकोप एवं अन्य कीटों एवं बीमारियों की सम्भावना अधिक रहती है।
राई (सरसों) की महत्वपूर्ण उन्नतशील किस्मों का विवरण:
प्रजाति उपज (क्/िहे) परिपक्ता(दिनों में) विशिष्ट गुण
आर.व्ही.एम.-1 14-20 108 अंसिचिंत क्षेत्र के लिए उपयुक्त
आर.व्ही.एम.-2 20-25 122-128 समय एवं देर से बुवाई के लिए उपयुक्त
गिर्राज (आई.जे.31) 22-27 115-135 बड़ा दाना, सिंचित क्षेत्र के लिए उपयुक्त
पूसा सरसों-30 16-22 115-130 समय से बुवाई, सिंचित क्षेत्र के लिए उपयुक्त, इरूसिक एसीड की मात्रा कम पाई जाती है।
पूसा सरसों-21 14-21 127-135 सफेद फफोला, झुलसन रोग, तना सड़न के प्रति सहनशील
पूसा सरसों-27 14-16 108-135 अगेती बोनी हेतु उपयुक्त
जवाहर सरसों-2 15-30 125-130 मृदुरोमील आसिता रोग व पाला के प्रति सहनशील
जवाहर सरसों-3 15-25 125-130 झुलसा रोग व माहु का प्रकोप कम होता है।
एन.आर.सी. एच.बी.-101 18-22 120-125 देर से बुवाई के लिए उपयुक्त
उपरोक्त तालिका में दर्शायी गई किस्मों की औसत उपज, तेल अंश, परिपक्वता आदि प्राप्त करने के लिए उन्नत तकनीक को अपनाना आवश्यक है। यही सभी गुण विभिन्न जलवायु परिस्थितियों के अनुकूल भिन्न हो सकते है। इन किस्मों से 20-25 क्ंिवटल प्रति हेक्टेयर तक औसत उपज आसानी ली जा सकती है।
इन किस्मो के अतिरिक्त संकर किस्म पायोनियर 45 एस 46, 45 एस 42 और 45 एस 47, पी.ए.सी. 432 (कोरल), ए.डी.बी. 414 बाजार में भी उपलब्ध है।
बुआई का उचित समय बीज की मात्रा एवं बीज उपचार:
बुवाई में देरी होने से उपज व तेल की मात्रा दोनो में कमी आ जाती है। बुवाई का उचित समय किस्म के अनुसार सितम्बर मध्य से लेकर अक्टुबर अंत तक का है, लेकिन सिंचित क्षेत्रो में नवम्बर में भी इसकी बुवाई की जा सकती है। अच्छे अंकुरण के लिए बुवाई के समय दिन का अधिकतम तापमान औसतन 33 डिग्री सेंटीग्रेड से अधिक नही होना चाहिए। बीज की मात्रा प्रति हेक्टेयर 4 से 5 किग्रा पर्याप्त होती है। सिंचित दशा में 5 किलोे तथा अंसिचित दशा में 6 किग्रा/हैक्टेयर पर्याप्त होती है। बीज उपचार के लिये कार्बेन्डाजिम (बाविस्टिन) 3 ग्राम तथा एप्रोन (एस डी 35) 6 ग्राम कवकनाशक दवाई प्रति किलोग्राम बीज की दर से मिलाना चाहिए।
उर्वरकों का प्रयोग:
उर्वरको का संतुलित उपयोग करने के लिए नियमित भूमि परीक्षण आवश्यक है। फसल में खाद की मात्रा निर्धारित करने से पहले मृदा परीक्षण कराना आवश्यक है। राई की फसल नाईट्रोजन प्रति अधिक संवेदनशील है एवं इसकी आवश्यकता भी अधिक मात्रा में होती है। असिंचित फसल को 40-60 किग्रा नत्रजन, 20-30 किग्रा फास्फोरस, 20 किग्रा पोटाश व 15 किग्रा सल्फर की आवश्यकता होती है तथा सिंचित फसल को 80-120 किग्रा नत्रजन, 50-60 किग्रा फास्फोरस, 20-40 किग्रा पोटाश, व 30-40 किग्रा सल्फर की आवश्यता होती है। नत्रजन की पूर्ति अमोनियम सल्फेट द्वारा करना लाभदायक होता है। क्योंकि इसमें गंधक भी उपलब्ध रहता है। सिंचित परिस्थियों में नत्रजन की आधी मात्रा व फास्फोरस, पोटाश व सल्फर की पूरी मात्रा को बुवाई के समय बीज से कम से कम 5 सेमी. नीचे देना चाहिए, तथा शेष आधी मात्रा को पहली सिंचाई के पश्चात् जब खेत में पैर चिपचिपाने की अवस्था पर बिखेरना (टाॅप ड्रेसिंग) चाहिए। असिंचित फसल मंे सभी पोषक तत्वो की पूरी मात्रा को बुवाई के समय ही देना चाहिए।
जैविक खाद का प्रयोगः
सिंचित क्षेत्रो के लिए 8 -10 टन/हैक्ट. तथा असिंचित क्षेत्र में 4-5 टन/हैक्ट. अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद बुवाई के करीब 1 माह पूर्व खेत में डालकर, जुताई कर अच्छी तरह मिला दे। गोबर की खाद से प्रमुख तत्वो के साथ-साथ सूक्ष्म पोषक तत्व की भी पूर्ति होती है। जिससे भूमि की भौतिक दशा का सुधार होता है तथा नमी संरक्षित रहती है। हरी खाद का भी प्रयोग सरसो की बुवाई से पूर्व किया जा सकता है। हरी खाद में ढेंचा को बरसात शुरू होते ही बो देना चाहिए व 35 से 40 दिन की अवस्था पर फूल आने से पहले जमीन में दबा देना चाहिए। सिंचित व बारानी दोनो प्रकार के क्षेत्र में पी.एस.बी. व एजोटोबेक्टर (10-15 ग्रा/किग्रा बीज) उपचार भी लाभदायक होता है। इससे नाइट्रोजन व फास्फोरस की उपलब्धता बढ़ती है और उपज में 8-10 प्रतिशत की वृद्धि होती है।
पौधो का विरलीकरण:
खेतों में पौधो की उचित संख्या और समान पौध बढ़वार के लिए बुवाई के 10-15 दिन बाद पौधो का विरलीकरण कर पौधे से पौधे की दूरी 15 से.मी. सुनिश्चित करें।
खरपतवार प्रबंधन:
खरपतवार को खेत से निकालने और नमी के संरक्षण के लिए पहली सिंचाई से पूर्व निंदाई गुड़ाई करना चाहिए क्योकि खरपतवार होने से उपज में 10-70 प्रतिशत तक कमी आ सकती है। खरपतवार नियंत्रण खुरपी, खरपतवारनाशी एवं व्हील हो आदि से किया जा सकता है। खरपतवार नियंत्रण के लिए पेण्डीमेथलीन 30 ई.सी. 1 लीटर सक्रीय तत्व (3.3 लीटर व्यापारिक मात्रा) को 800 लीटर पानी में मिलाकर बुवाई के बाद (बुवाई के 1 से 2 दिन के अंदर) छिड़काव करना चाहिए अथवा आइसोप्रोट्यूराॅन 75 प्रतिशत की 0.75 किग्रा प्रति हैक्ट. मात्रा का छिड़काव बुवाई के 30 दिन पर करना चाहिए।
सरसों की खुटाई:
सरसों की 30-35 दिन की फूल आने की प्रांरभिक अवस्था में मुख्य शाखा को उपर से लकड़ी द्वारा तुड़ाई करने से शाखाओं की संख्या मे वृद्धि होती है जिससे 10-15 प्रतिशत अधिक उत्पादन मिलता है।
सिंचाई:
पहली सिंचाई खेत की नमी, फसल की जाति और मृदा प्रकार को देखते हुए 35-40 दिन के बीच करनी चाहिए। दूसरी सिंचाई फली बनने पर 60-70 दिन की अवस्था पर करनी चाहिए। जहाॅ पानी की कमी हो या खारा पानी हो वहाॅ सिर्फ एक सिंचाई ही करना अच्छा रहता है। यदि सिंचाई का पानी क्षारीय हो तो पानी की जाॅच करवाकर उचित मात्रा मंे जिप्सम और गोबर की खाद का प्रयोग करें।
कीट रोग प्रबंधन:
आल्टर्नेरिया अंगमारी/पर्ण चित्ती:- यह बीमारी पौधों की निचली पत्तियों पर छोटे-छोटे गहरे भूरे रंग के बिंदु के रूप में प्रकट होती है, जो कि तेजी से बढ़कर एक संेटीमीटर तक के वृत्ताकार बड़े धब्बों का रूप ले लेती है। इन्ही धब्बों पर सकेंन्द्री वलय (जंतहमज ेचवज) भी बन जाते है। यह रोग तीव्र गति से बढ़कर उपर की पत्तियों, तनों व फलियों को ग्रसित करता है। ग्रसित फलियों का बीज भी प्रभावित होकर सिकुड़ कर छोटा हो जाता है और अधिक उग्रता होने पर सड़ जाता है। अनुकूल परिस्थितियों में पत्तियों के धब्बे आपस में मिलकर अंगमारी के लक्षण प्रकट करते है और पत्तियाॅ मुरझा कर गिरने लगती है।
नियंत्रण: स्वस्थ व प्रमाणित बीज प्रयोग में लायें। रोगग्रसित फसल अवशेषों को जलाकर नष्ट कर दें तथा खरपतवारो की सफाई करें। आईप्रोडियाॅन (सेवराॅल) /मैंकोजेब (डाइथेन एम 45) फफूॅदीनाशक के 0.2 प्रतिशत घोल को रोग दिखते ही छिड़काव 15-15 दिन के अंतर से करें। (अधिकतम तीन छिड़काव)
सफेद रतुवा या श्वेत किट्ट (ॅीपजम तनेज): हमारे देश में सभी स्थानों पर जहाॅ सरसों बोयी जाती है, यह रोग सामान्यतः पाया जाता है और इससे काफी आर्थिक हानि पहुॅचती है। पुष्पक्रम तक संक्रमण पहुॅच जाने की दशा में मृदुरोमिल आसिता व सफेद रतुवा के मिले जुले प्रभाव से 17-32 प्रतिशत की उपज में हानि आंकी गयी है।
नियंत्रण: समय से बुवाई करें (10-25 अक्टूबर के बीच)। स्वस्थ व प्रमाणित बीज का उपयोग करें। रोग ग्रसित फसल अवशेषों को जलाकर या गाड़कर नष्ट कर दें। खरपतवार से फसल को साफ रखें। मेटालेक्जिल (एप्राॅन 35 एस.डी.) से बीजोपचार 6 ग्राम दवा प्रति किग्रा बीज की दर से उपचारित करने से बीज द्वारा पनपने वाले रोगों को रोका जा सकता है। फसल पर रोग के लक्षण दिखते ही मैंकोजेब (डाइथेन एम 45)/रिडोमिल एम.जेड. 72 डब्ल्यू.पी., फंफूॅदीनाशक के 0.2 प्रतिशत घोल का छिड़काव 15-15 दिन के अंतर पर करने से सफेद रतुआ रोग से बचाया जा सकता है। अधिकतम तीन छिड़काव ही आर्थिक दृष्टिकोण से उचित होते है। फसल की सिंचाई आवश्यकता से अधिक न करें।
मृदुरोमिल आसिता (क्वूदल उपसकमू): भारत वर्ष में यह रोग सर्वत्र पाया जाता है। सफेद रतुवा व मृदुरोमिल आसिता दोनो ही कवकों द्वारा सम्मिलित रूप से 17-32 प्रतिशत तक आर्थिक हानि होती है।
नियंत्रण: समय से बुवाई करें (10-25 अक्टूबर के बीच)। स्वस्थ व प्रमाणित बीज का उपयोग करें। रोग ग्रसित फसल अवशेषों को साफ रखे। मेटालेक्जिल (एप्राॅन 35 एस.डी.) से बीजोपचार 6 ग्राम दवा प्रति किग्रा बीज की दर से उपचारित करने से बीज द्वारा पनपने वाले रोगों को रोका जा सकता है। फसल पर रोग के लक्षण दिखते ही मैंकोजेब (डाइथेन एम 45)/रिडोमिल एम.जेड. 72 डब्ल्यू.पी., फंफूॅदीनाशक के 0.2 प्रतिशत घोल का छिड़काव 15-15 दिन के अंतर पर करने से रोग से फसल को बचाया जा सकता है। अधिकतम तीन छिड़काव ही आर्थिक दृष्टिकोण से उचित होते है। फसल की सिंचाई आवश्यकता से अधिक न करें।
स्कलेरोटीनिया तथा सड़न: इस रोग तराई व पानी भराव वाले स्थानों में 35 प्रतिशत तक हानि आंकी गयी है। कभी-कभी तो उग्र रूप से ग्रसित पौधो में बीज बिल्कुल ही नही बनते।
नियंत्रण:
स्वस्थ, स्वच्छ व रोग रहित बीज का उपयोग करे। रोग ग्रसित फसल अवशेषों को जलाकर या गाड़ कर नष्ट कर दें। गर्मी में गहरी जुताई करें। गेहूॅ, जौ, धान व मक्का इत्यादि उन फसलों की बुवाई करे जो रोगग्राही न हो और समुचित फसल चक्र अपनाये। कार्बेन्डाजिम (0.1 प्रतिशत) फफूंॅदीनाशक का छिड़काव दो बार फूल आने के समय 20 दिन के अंतराल (बुवाई के 50वे व 70वे दिन पर) करने रोग का बचाव किया जा सकता है।
परीक्षणों में स्कलेरोशिया गलन रोग को रोकने में लहसुन को बारीक पीसकर कपड़े से छाने और एक लीटर पानी में मिलाकर घोल तैयार करें। एक लीटर लहसुन को 2 प्रतिशत सत् 5-7 किग्रा बीजोपचार के लिए पर्याप्त है। इसके लिए बीज को सत् में 10-15 मिनट तक भिगोया जाता है। इसके उपरांत उपचारित बीज को छायादार जगह पर सुखाया जाता है। जिससे की बीज मशीन से बुवाई के लिए आसानी से निकल सके। साथ ही 50 दिन पर जब फसल में 25-30 प्रतिशत फूल आ जाये। उस समय एक छिड़काव इसी मात्रा में कर दे। आवश्यकतानुसार दूसरा छिड़काव 70 दिन की फसल पर करे। ध्यान रखे कि छिड़काव रोग पनपने से पहले किया जाए व पौधोके सभी भागो पर हो जाए। इसके अलावा कार्बन्डाजिम (बाविस्टिन) 2 ग्राम तथा एप्रोन (एस डी 35) 6 ग्राम कवकनाशक दवाई प्रति किलोग्राम बीज की दर से बीजोपचार करने से फसल पर लगने वाले रोगो को काफी हद तक कम किया जा सकता है।
माहु कीट: यह कीट पत्तियों एवं फलियों से रस चूसकर फसल उत्पादन को प्रभावित करता है।
नियंत्रण: समय बुवाई करें। देर से बुवाई करने पर माहू कीट का प्रकोप होता है। माहू से ग्रहित टहनियों को तोड़कर नष्ट करें। अथवा डाईमेथिएट(रोगोर) की 750 मि.ली. मात्रा को 500 लीटर पानी में मिलाकर छिड़काव करें।
फसल की कटाई:
सरसों की कटाई 75 प्रतिशत फलियाॅ सुनहरे पीले रंग की होने पर करें। इस समय अधिकांश बीज दो उंगलियों के बीच में दबाने पर फटते नहीं है। इसी समय तेल की मात्रा की अधिकतम होती है। कटाई का कार्य सुबह ही करें। क्योंिक रात के ओंस से भीगी फलियाॅ फटती नही है। हरी फलियों की कटाई से उपज और तेल की मात्रा दोनों में कमी आती है। कटे हुए पौधों को इकट्ठा कर सुखा लें।
गहाई, भण्डारण एवं बिक्री:
गहाई सामान्यताः थ्रेसर या फिर सूखे पौधो पर बैलों अथवा ट्रेक्टर को चलाकर किया जाता है। गहाई के बाद बीज को औसाई करके साफ कर लें। सुरक्षित भण्डार के लिए बीज मे ंनमी की मात्रा 8 प्रतिशत से कम होना चाहिए। बीजों को बाद में मंडी या भण्डार गृह ले जाया जाता है।